(कवित्त)
हिय अकुलाल तरसात सरसात सदा,
बार-बार कहौं अजू कृपा बेगि कीजिये। [1]
अंतराय पलहू कौ मैं तौ न सम्हार सकौ,
छिन-छिन माँझ मेरौ यह तन छीजिये॥ [2]
रूप सिंध भींजिये यों कृपा रस पीजिये,
औ कबहूँ न पतीजिये जू यही जस लीजिये। [3]
साँचे तौ अनेक तारे प्यारे लाल-बाल,
एक ‘चंद’ झूंठे हू कौं बास वृन्दावन दीजिये॥ [4]
- श्री चंद्र लाल गोस्वामी जी, अभिलाष बत्तीसी
मेरा हृदय अकुला रहा है, तड़प रहा और व्याकुल हो रहा है; मैं आज बार-बार विनती करता हूँ, कृपया शीघ्र अपनी कृपा प्रदान करें। [1]
मैं एक क्षण की भी बाधा सहन नहीं कर सकता; क्षण क्षण यह मानव देह बीता जा रहा है। [2]
अपनी ऐसी कृपा कीजिए कि मैंने आपके रूप-सिंधु में डूब सकूँ, मुझे आपके इस रस से कभी संतुष्टि न मिले अपिंतु यह प्यास बढ़ती ही जाए। [3]
श्री चंद्रलाल कहते हैं कि हे प्यारे लाल, आपने तो अनेक साँचों को तारा है, एक मुझ जैसे झूठे को भी वृंदावन का वास प्रदान कर कृतार्थ कीजिए। [4]